अच्छे विचार (सुभाषित)
अपूर्व: कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति !
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति सञ्चयात् ॥1॥
अर्थ :- हे सरस्वती ! तुम्हारा यह खजाना अद्भुत है, जो व्यय करने से बढता है और संग्रह करने से घटता है ।
यौवनं धनसम्पत्ति-प्रभुत्वमविवेकता ।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ॥2॥
अर्थ: - यौवन, धन-सम्पत्ति, प्रभुता, अविवेकता । इन चारों में अनर्थ के लिए एक ही पर्याप्त होती है । यदि चारों मौजूद हो, तो अनर्थ के क्या कहने ?
आयुष: क्षणमेकोऽपि, न लभ्य: स्वर्णकोटिकै: ।
स चेन्निरर्थकं नीत:, का नु हानिस्ततोऽधिका: ॥3॥
अर्थ: - आयु का एक क्षण भी करोडों स्वर्ण मुद्राएँ देकर भी प्राप्त नहीं किया जा सकता । अत: वही यदि व्यर्थ बिता दिया गया तो उससे अधिक हानि और क्या होगी ॥
वाणी रसवती यस्य यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी: दानवती यस्य सफलं तस्य जीवनम् ॥4॥
अर्थ: - जिस व्यक्ति की वाणी मधुर हो, कार्य परिश्रम से पूर्ण हो, जिसका धन दान देने में काम आता हो, उसी व्यक्ति का जीवन सफल है ।
नास्ति यस्य स्वयंप्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करिष्यति ॥5॥
अर्थ:- जिस व्यक्ति की अपनी बुद्धि नहीं है । शास्त्र उसका क्या उपकार करेंगे, जिस प्रकार आँखों से रहित व्यक्ति का दर्पण क्या उपकार करेगा ॥
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥6॥
अर्थ: - विद्वान् होना और राजा होना कभी भी एक समान नही हो सकता । राजा तो अपने ही देश में पूजा जाता है, विद्वान् सब जगह पूजा जाता है ।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग् भवेत् ॥7॥
अर्थ: - सभी सुखी रहें । सभी नीरोग रहें । सबका कल्याण हो, कोई दुखी न हो ।
कल्याणमस्तु सर्वेषां, विलसन्तु समृद्धय: ।
सुखा: समीरणा वान्तु , भान्तु सर्वा दिश: शुभा:॥8॥
अर्थ: - सबका कल्याण हो, सबकी धनसम्पत्ति बढे, सुखदायी वायु बहे, सभी दिशाएँ कल्याणकारी होकर सुशोभित हों ।
सर्वस्तरतु दुर्गाणि, सर्वो भद्राणि पश्यतु ।
सर्व: कामानवाप्नोतु, सर्व: सर्वत्र नन्दतु ॥9॥
अर्थ: - सभी कठिनाईयों को पार कर लें, सभी अच्छा (कल्याणकारी) देखें, सभी की इच्छाएँ पूर्ण हों, सभी हर जगह आनन्द से रहें ।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ॥10॥
अर्थ: - उचित आहार-विहार, उचित कर्मों में चेष्टा, उचित निद्रा व उचित जागरण होने से दुखों का नाश होता है ।
वरमेको गुणी पोत्रो न च मूर्ख शतान्यपि ।
एकचन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणैरपि ॥11॥
अर्थ: - एक भी सद्गुणी पुत्र अच्छा है सैकड़ों पुत्र अच्छे नहीं । चन्द्रमा अकेला अन्धेरे को दूर कर देता हैं । अन्धेरा तारों के समूह से दूर नही होता ।
सेवितव्यो महावृक्ष: फलच्छाया समन्वित: ।
यदि दैवाद् फलं नास्ति, छाया केन निवार्यते ॥12॥
अर्थ: - एक महान् वृक्ष की सेवा करनी चाहिए (उगाना चाहिए), जो फल और छाया दोनों से युक्त हो । यदि भाग्य से फल नहीं आये तो छाया कौन हटा सकता है ।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन
दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन ।
विभाति काय: खलु सज्जनानां
परोपकारैर्न तु चन्दनेन ॥13॥
अर्थ: - कान की शोभा सुनने से होती है कुण्डल से नहीं, हाथ की शोभा दान करने से होती है कंगन से नहीं, उसी प्रकार सज्जनों का शरीर परोपकार से शोभित होता है चन्दन से नहीं ॥
गन्धेन हीनं सुमनं न शोभते
दन्तैर्विहीनं वदनं न भाति ।
सत्येन हीनं वचनं न दीप्यते
पुन्येन हीन: पुरुषो जघन्य: ॥14॥
अर्थ: - गन्ध के बिना फूल शोभा नहीं पाता, दाँतो के बिना मुख अच्छा नहीं लगता, सच्चाई के बिना वचन (वाणी) अच्छे नहीं लगते, वैसे ही पुण्य से हीन (पुण्य न करने वाला) व्यक्ति जघन्य होता है ।
पयसा कमलं कमलेन पय:
पयसा कमलेन विभाति सर: ।
शशिना च निशा निशया च शशि:
शशिना निशया च विभाति नभ: ॥15॥
अर्थ: - पानी से कमल और कमल से पानी शोभित होता है, पानी और कमल दोनों से तालाब शोभित होता है । चन्द्रमा से रात और रात से चन्द्रमा शोभित होता है, चन्द्रमा और रात दोनों से आकाश शोभित होता है ।
मणिना वलयं वलयेन मणि:
मणिना वलयेन विभाति कर: ।
कविना च विभु: विभुना च कवि:
कविना विभुना च विभाति सभा ॥16॥
अर्थ: - मणि (रत्न) से कंगन और कंगन से मणि शोभित होता है, कंगन और मणि दोनों से हाथ शोभित होता है । कवि से राजा और राजा से कवि शोभा पाता है, राजा और कवि दोनों से सभा शोभित होती है ।
देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन: ।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशय: ॥17॥
अर्थ: - भाग्य के रूठ जाने पर गुरु त्राता (बचाने वाला) होता है, गुरु के रूठ जाने पर कोई नहीं । गुरु ही त्राता है, गुरु ही त्राता है, गुरु ही त्राता है ,इसमें कोई संशय नहीं ।
हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम् ।
कर्णस्य भूषणं शास्त्रं भूषणै: किं प्रयोजनम् ॥18॥
अर्थ: - हाथ का आभूषण दान करना है, कण्ठ का आभूषण सच्चाई है, कान का आभूषण शास्त्र सुनना है तो (बाह्य) आभूषणों का क्या प्रयोजन ।
विद्या प्रतिष्ठा न धनं प्रतिष्ठा
साऽप्यप्रतिष्ठा विनयव्यपेता ।
गुणा: प्रतिष्ठा न कुलं प्रतिष्ठा
तेऽप्यप्रतिष्ठा यदि नात्मनिष्ठा ॥19॥
अर्थ: - विद्या से प्रतिष्ठा होती है, धन से प्रतिष्ठा नहीं । वह भी (विद्या) विनय के बिना अप्रतिष्ठा होती है । गुणों से प्रतिष्ठा है, कुल से प्रतिष्ठा नहीं । वे (गुण) यदि आत्मनिष्ठ नहीं हैं तो अप्रतिष्ठा के कारण बनते हैं ।
कर्णामृतं सूक्तिरसं विमुच्य
दोषे प्रयत्न: सुमहान् खलानाम् ।
निरीक्षतो केलिवनं प्रविश्य
क्रमेलक: कण्ठकजालमेव ॥20॥
अर्थ: - दुर्जनों का प्रयत्न कानों के द्वारा सुनने योग्य सूक्ति रस को छोडकर दोष में रहता है । जिस प्रकार ऊँट बगीचे में प्रवेश करके भी कण्टकजाल (काँटों का पेड़) ही ढूंढता है ।
यथा चतुर्भि: कनकं परीक्ष्यते
निर्घर्षणच्छेदन-ताप-ताडनै: ।
तथा चतुर्भि: पुरुषं परीक्षते
त्यागेन शीलेन गुण-कर्मणा ॥21॥
अर्थ : - जैसे सोने की जाँच घिसना, तोडना, जलाना और ताडना (पीटना) आदि चार प्रकार से होती है, उसी प्रकार मनुष्य की जाँच भी त्याग, शील, गुण, कर्म आदि चार प्रकार से होती है ।
शीतलं चन्दनं लोके चन्दनादपि चन्द्रमा ।
चन्द्र-चन्दनयोर्मध्ये शीतल: साधु-सङ्गम: ॥22॥
संस्कृत संपूर्ण, श्रेष्ठ, सुंदर और वैज्ञानिक भाषा है।
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